प्रस्तावना :
ये कहानी संग्रह मुझे नीतू
जी ने पी डी एफ के रूप में मेल से भेजा है। इसको प्रकाशित किया है शब्द प्रकाशन ने
। जिस प्रकार से लेखिका ने लिखा है कि लेखन उनके जीने का साधन है, उसी
प्रकार से किसी भी किताब को, विषेशरूप से कहानी संग्रह को पढ़ना मेरा भी जीने का
एक साधन है। जो कुछ भी इस कहानी संग्रह से मैं ग्रहण कर पाया हूँ आपके सामने
प्रस्तुत करता हूँ।
कहानियाँ :
पहली कहानी 'छँटते
हुए चावल' ही है जो
इस संग्रह का शीर्षक भी है। मेरे लिए ये एक नया मुहावरा ही है जिसका सही अर्थ मुझे
कहानी पढ़ने के बाद ही ज्ञात हुआ। किसी व्यक्ति के बारे में बिना ठीक से जाने ही
लोग क्या-क्या बोलने लगते हैं ये कहानी का सार है। इस कहानी कि एक पंक्ति ने
मुस्कुराने के लिए मजबूर कर दिया - "रोटियाँ सिकतीं गईं और
दिमाग़ पकता गया।" दूसरी कहानी 'खोईंछा' भी कुछ
कुछ वैसे ही विषय पर आधारित है जिसमें एक स्त्री को बिना उसका पक्ष जाने ही उसकी
अपनी बेटी की मृत्यु का दोषी मान लिया जाता है। धीरे-धीरे जब सच की परतें खुलती
हैं तो पाठक भी हतप्रभ हो जाता है। कहानी कई मोड़ों से गुजरते हुए समाप्त होती है
जो कहानी को काफ़ी दिलचस्प और पठनीय बनाते हैं। तीसरी कहानी 'शीतल
छांव' आपकी
मुलाक़ात ईशिता और नरेन से होती है जिनकी ज़िंदगी में लाखों ग़म हैं। समाज के कुछ महा
स्वार्थी नियम किस प्रकार एक लड़की के जीवन से खेलते हैं, पढ़ने
योग्य हैं जो अंत मे आपकी आँखों को नम कर जाती है। आगे आपकी मुलाक़ात होती है एक
काम वाली बिमली से जो कहती है, "का करूँ दीदी, हमार छत तो हमार मरद
ही है न। तुम्हारे समाज में औरत लोग जल्दी ही तलाक ले लेती हैं, पर हम
गरीब औरत पति के लात-जूता खाके बस सहती हैं,” फिर क्या हुआ ? ये सोचने का विषय है। थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो एक बलात्कार का शिकार हुई
लड़की से लेखिका आपको ‘काला अध्याय’ में
रु-ब-रु करवाती है और उसकी मन:स्तिथि, जो खंडित हो चुकी है, उसको अपनी शादी के समय कुछ ऐसा करने पर मज़बूर कर देती है जिसको पढ़कर आप
भी चकित हुए बिना न रह सकेंगे। ‘हम बोझ नहीं’ एक प्रेरणादायक कथा है जो हर हाल में जीवन जीने और संघर्ष करने के लिए
कहती है। अब आती है एक कहानी ‘डे नाइट’।
क्या क्या नहीं बीता होगा उस लड़की के ऊपर जब उसे उस परिवार की असलीयत पता लग जाती
है जिसमें वो ब्याह कर आई है और ऊपर से ये सुनने को मिले कि शादी में थोड़ा बहुत
झूठ तो चलता ही है। ‘आस भरा इंतज़ार’ एक
ग़रीब मज़दूर परिवार की कहानी है जहां एक स्त्री कितना मज़बूर हो जाती है कि वो नए
साल पर अपने बच्चों को खीर तक नहीं खिला सकती, पढ़कर आपकी
आँखें भी भीग जाएंगी। आगे आपकी मुलाक़ात होती है एंद्री से जिसके व्यक्तित्व को
जानकर आपको अच्छा लगेगा कि इस ‘खुल गयी आँखें’ नामक कहानी का ये नाम क्यूँ रखा गया है। ‘माफ़ करना’ एक ऐसी कहानी है जिसे पढ़कर आपको थोड़ा नायक के प्रति और फिर नायिका के
प्रति क्रोध ज़रूर आएगा। लेकिन जैसे जैसे कहानी की परतें उघड़ती हैं आपको दोनों के
प्रति सहानुभूति होने लगती है। जब आगे आप ‘एक कथा ऐसी भी’ में प्रवेश करते हैं तो उदासी शुरू से ही आपके ऊपर हावी हो जाती है मगर
धीरे धीरे लेखिका जब कहानी को बढ़ाती है, आपको अच्छा लगने
लगता है। ये एक लड़की के दर्द भरे जीवन की बेहतरीन कहानी है। माँ न बन पाने का दर्द
क्या होता है ये पढ़ें ‘रिश्तों का ताना बाना’ में – और कैसे इस स्थिति से निबटा गया सिर्फ़ एक आदमी की सूझ-बूझ से। काम
मुश्किल था मगर रास्ते मिलते गए और सब ठीक हो गया। कभी-कभी हम सब ऐसी विकट स्थिति
में पड़ जाते हैं कि कोई रास्ता नहीं मिलता और गांधी जी के बंदर की तरह आँखें बंद
करनी पड़तीं हैं – पढ़ें ये दिलचस्प कहानी – ‘बंद आँखों का
बंदर’। आगे आती है एक ऐसी कहानी जिसका नाम है –‘चीर हरण’ जिसमें एक लड़की और उसकी माँ को अपने मासिक
धर्म से निबटने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है विशेषकर जब ख़ुद उनके परिवार के लोग
ही उनकी परेशानी को समझने को तैयार न हों। बढ़िया प्रस्तुति है।
उनके दूसरे कहानी संग्रह ‘हमसफ़र’ में भी इसी
प्रकार की कहानियाँ हैं कुछ छोटी तो कुछ बड़ी जो पढ़ने पर आपको अच्छी लगेगीं।
समीक्षा :
इस कहानी संग्रह की सभी
कहानियाँ निम्न या फिर निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की कहानियाँ हैं जो ग्रामीण अंचल
से ली गयी हैं। कहानियों के मुख्य विषय समाज में फैली विषमताएं, रूढ़ीवाद, अशिक्षा, प्रेम, विवाहेतर संबंध इत्यादि को बहुत सीधे, सादे, और सटीक तरीके से लेखिका ने समझाने की पुरजोर
कोशिश की है जिसमें वो सफल भी रही हैं। कहानियों कि भाषा साधारण परंतु सुंदर है और
प्रवाह एक नदी कि तरह है जो कलकल करते हुए अपने गंतव्य की तरफ़ अविरल बढ़ती है और आप
उसके किनारे बैठकर आराम से अपने पाँव उसमें डालकर उस प्रवाह का आनंद ले सकते हैं।
मित्रों, ऐसी कहानियाँ वो ही लिख सकता है जिसने उस तरह के
जीवन को न सिर्फ़ जिया हो बल्कि घूंट-घूंट पिया भी हो। लेखिका के बारे में पढ़कर
मुझे आश्चर्य हुआ कि उनके दिल में जन्म से ही विकृति है और वो अक्सर बीमार रहती
हैं। पारिवारिक और शारीरिक कारणों से उनकी शिक्षा भी अधिक नहीं हो पायी, निम्न मध्यवर्गीय परिवार से हैं, फिर भी समाज में
होने वाले क्रिया कलापों के प्रति इतनी सजग हैं और अपने अनुभवों को अपनी कलम से
कहानियों मे उतार देने की गज़ब की प्रतिभा है उनमें। मैं सुदीप्ति ‘नित्या’ के इस ज़ज़्बे को सलाम भेजता हूँ।
इनके जीवन पर कवि दुष्यंत जी
का ये शेर बिलकुल सही बैठता है –
कौन कहता है आसमान में
छेद हो नहीं सकता, एक
पत्थर तो ज़रा तबीयत से उछालो यारों।
लेखिका के जीवन के संदर्भ में
मैं इस शेर को कुछ इस प्रकार से कहना चाहूँगा –
कौन कहता है दिल में छेद
हो नहीं सकता, एक शब्द
तो तबीयत से उछालो यारों।
मेरा अनुमान है कि नीतू जी ने
जब वो माँ के पेट में थीं तभी से शब्दों के साथ खेलना शुरू कर दिया था और कोई शब्द
इतनी ज़ोर से उछाला कि वो बाहर आने की बजाए अंतर्मुखी हो गया और उसने इनके दिल में
छेद कर दिया।
हिचकियाँ :
किताब में कोई ख़ास कमी देखने
को नहीं मिली। चरित्र निर्माण बढ़िया है मगर भाषा को अभी और परिष्कृत करने कि
आवश्यकता है ताकि वो ‘साधारण’ से थोड़ा ‘असाधारण’ की तरफ़
अग्रसित हो सके।
पुन: अवलोकन :
हमारे समाज में प्रचलित
कुप्रथाओं, विषमताओं, और कुंठाओं को परत – दर – परत उघाड़ती ये साधारण भाषा में कही गयी आपकी, मेरी, हम सबकी कहानियाँ हैं। मैं चाहता हूँ कि अधिक
से अधिक पाठक इन्हें पढ़ें और लेखिका नीतू सुदीप्ति का हौसला भी बढ़ाएँ। मैं एक
चिकित्सक भी हूँ और जानता हूँ कि किसी के दिल में छेद होना कितना घातक है। मेरी
शुभकामनायें नीतू जी के साथ हैं और मैं हृदय से कामना करता हूँ कि वो अपने उपनाम ‘नित्या’ को चरितार्थ करते हुए दीर्घायु हों, खूब लिखें और धारदार लिखें। मुझे उनकी आने वाली सभी कृतियों का इंतज़ार
रहेगा और पढ़ना भी चाहूँगा।
राजीव पुंडीर
25 जुलाई 2018
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