परिचय :
राजवंत राज एक अद्भुत व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं । जितनी समृद्ध वो एक चित्रकार हैं मुझे लगता है उससे भी अधिक वो कलम की धनी हैं क्योंकि मैंने इसके पहले उनका एक कहानी संग्रह 'ट्रम्प कार्ड ' पढ़ा है जो बहुत ही सम सामयिक कहानियों का भण्डार है और जिसकी सभी कहानियाँ स्त्री को केंद्र में रख कर बुनी गई है । अब मुझे उनका ये कविता संग्रह पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसके गर्भ में स्त्री के भिन्न रूप विकसित होकर आपके सामने प्रस्तुत हैं । इसका प्रकाशन लखनऊ से शारदेय प्रकाशन ने किया है ।
समीक्षा :
जहाँ तक समीक्षा करने का प्रश्न है, मैं एक समीक्षक तो स्वयं को नहीं कह सकता, हाँ एक लेखक होने के नाते ये मेरा उत्तरदायित्व है कि मैं किसी भी पुस्तक को पढ़कर उसके बारे में जो अनुभव मुझे हुए उनको अपने मित्रों और अन्य पाठकों के समक्ष रखूं ताकि अच्छी पुस्तकें लोगों तक पहुंचे और साहित्य में संवर्धन हो । राजवंत राज जी का ये कविता संग्रह स्त्री के व्यवहार, उसके चरित्र, व्यक्तित्व, भाव, प्रेम, दुःख, और सुख का लेखा जोखा है जिसको पढ़कर कभी आप बरबस मुस्कुरा पड़ते हैं तो कभी सोच में डूब जाते हैं, कभी आपका हृदय वेदना से भर जाता है तो कभी आपकी आँखों से अनायास ही एक बूँद नमी बाहर छलक पड़ती है, कभी आप स्त्री के प्रति स्वयं को उत्तरदायी समझने लगते हैं तो कभी एक अजीब सी कुंठा या कहें तो अपराध बोध से भर जाते हैं :
आश्चर्य की बात तो तब है कि स्त्री जब समाज से या पुरुष से ही नहीं परमात्मा से भी शिकायत करने की हिम्मत कर जाती है :
या रब ! तराशा तो, मगर इतना, कि बुत ही बना दिया ।
और जब वो कुछ कठोर होकर बोलती है : आधी बात कही थी तुमने, आधी बात मैंने भी कह दी, बात पूरी हो गई ।
और सामने वाला भी उसकी संवेदना को समझ कर उसे सांत्वना देते हुए कहता है : आओ ! तुम्हें तुमसे मिलाऊं - कि तुम्हें क्यों लगता है कि तुम गुम हो गई हो ?
बहुत ही सुंदर वार्तालाप है - कौन कहता है कि तुम गुम हो गई हो, सांस खींचकर अपनी छाती में, तुम्हारी सारी खुशबू उतार ली है ।
फिर से मनाने की कोशिश में वो उसकी तारीफ़ में कहता है - आओ तुम्हारी भीगीं जुल्फों में, इक चाँद तराशें, इक सूरज तराशें और चंद तारे भी तराशें ।
दोस्तों, ये रूठने मनाने का सिलसिला दो प्रेम करने वालों के मध्य सदियों पुराना है जिसे लेखिका ने बहुत सुंदर तरीके से छोटे छोटे छंदों में दर्शाया है ।
स्त्री जब प्रेम करती है तो इस हद तक करती है कि वो न जाने कब उसकी किताब में रखा मोर का पंख हो जाती है : मैंने तुम्हें किताबों की शक्ल में पढ़ा है, पढ़ते-पढ़ते न जाने कब मैं, उसने रखा मोर का पंख हो गई ।
और कितनी सुन्दरता से सहज भाव से अपनी साधारण सी सजने की इच्छा को व्यक्त करती है : जब भी दिल करता है, श्रृंगार करने का, एक सुर्ख बिंदी, माथे पे सजा लेती हूँ मैं ।
दोस्ती स्त्री के लिए कुछ इस तरह है : जब तुझे कोई दर्द हो, और मेरी आँखों में पानी उतर आये, तो समझना हमारी दोस्ती ने भरपूर ज़िंदगी जी है ।
राजवंत जी की कविताओं में एक दार्शनिक रंग भी देखने को मिला जिससे आप समझ सकते हैं कि लेखिका को आत्मिक और आध्यात्मिक अनुभव कितना गहरा है : दूसरे ही दिन एक दरवेश मिला, उसने कहा, 'तू अपनी आँखें बंद कर, उस रब को महसूस कर - वो तेरी बाहों में है, तेरे सपने में है, तेरी खुशबू में है, तेरे दिल में है, तेरी धड़कन में है, तू आँखें बंद कर, बस और बस उसे महसूस कर - फिर - मैंने आँखें बंद कीं, मुझे तुम दिखे ।
और अंत में : चुनिंदा पन्नों से कहो,
कि मुझे आकर मिलें
मेरे शब्दों को समेट लें
ये बहुत -बहुत नाज़ुक हैं
मैं इन्हें हर किसी के सुपुर्द नहीं कर सकती
मुख पृष्ठ :
पुस्तक का कवर अति सुंदर है और राजवंत जी की चित्रकारी का उत्कृष्ट नमूना है जिसमें आप साधारण स्त्रियों के सौन्दर्य का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं
मित्रों पूरी पुस्तक बहुत ही मार्मिक, प्रेम, संवेदना, कभी आपको प्रसन्न तो कभी गहरे दर्द का अहसास और गंभीर सोच में डुबोने वाली कविताओं से समृद्ध है और मैं इसके लिए राजवंत जी को बहुत बहुत बधाई और उनकी लेखनी को नमन करता हूँ । उनके आने वाले साहित्य का मुझे इंतज़ार रहेगा और मेरी हार्दिक शुभकामनाएं । सभी से आग्रह है कि इस किताब को अपने संग्रह का अंग अवश्य बनाएं, स्वयं पढ़ें और अपने मित्रों को भी पढ़ने को कहें ।
डॉ राजीव पुंडीर
10 March 2023
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